पिछले दिनों सामाजिक कर्तव्यों और पारिवारिक संबंधो के चलते कई जान पहचान वालो के घर जाना हुआ| यूँ तो अक्सर ही ये मेल-जोल लगा रहता है मगर इस बार कुछ अलग सा था| जहां भी गया वहाँ एक सवाल तो हर किसी ने उठाया, मगर अलग बात उस सवाल में नहीं थी| “शादी कब कर रहे हो?” इस सार्वभौमिक सवाल के बीच मेरा ध्यान दीवारों पर टंगी तस्वीरो पर गया और कम से कम तीन घरो में मैंने पाया कि जिन लोगो को मैंने अपने अभी तक के जीवन काल में अपने सामने चलते, फिरते, बोलते, हँसते देखा था, बस अब दीवारों पर उनकी तस्वीर मात्र ही बाकी थी| इससे पहले भी परलोक गमन कर गए लोगो की तस्वीरें मैंने दीवारों पर देखी थी पर न मैंने कभी उन लोगो को अपने सामने उतना करीब से देखा नहीं था| क्योंकि वो वे लोग थे जो या तो उस वक़्त गुज़र गए जब मन में स्मृतियाँ उतनी गहरी नहीं उतरती है, या तो मेरे जन्म से पहले ही गुज़र गए थे और मैंने बस इनके बारे में किस्से कहानियों में सुना था| इस बार कहानियां सुनाने वाले ही खुद कहानी बन गए थे| ये वो थे जिनकी बातें, यादें एकदम कंचन की तरह साफ़ मेरे मन में अंकित थी|
मैंने मन ही मन हिसाब लगाया तो पाया कि ऐसे लोगो की संख्या तीन तक सीमित नहीं थी| और इसी विचार के साथ एक ऐसे बोध ने मुझे चित कर दिया कि मैं सोचने समझने लायक नहीं रहा| बात कोई नयी नहीं है, रोज़मर्रा की ही बात है – म्रत्यु| जी हाँ, म्रत्यु यानि की मौत| बड़ी ही आम सी बात है और क्यों न हो, जो भी पैदा हुआ है उसे एक न एक दिन मरना ज़रूर है| और मरने का मर्त्यु के सिवा कोई और तरीका नहीं है| जिन लोगो की शादी हो चुकी है वो इस दावे पर मुझसे एकमत नहीं होंगे, पर खैर|
म्रत्यु और उसके साथ जीवन की समाप्ति एक अटल सत्य है| युधिस्ठिर ने भी यक्ष को यही कहा था कि विश्व का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि रोज़ लाखो स्त्री-पुरुष दुसरो को मरते हुए देखते है पर खुद कभी यह स्वीकार नहीं करते कि वो खुद मर सकते है| सोचिये तो कितनी देहला देने वाली बात है यह| जो लोग कल तक आपके जीवन का एक अभिन्न अंग थे, एक चिरकालिक सत्य थे, साक्षात् उपलब्ध थे, आज नहीं है| और ऐसा नहीं है कि उनकी मौत से आप अनजान रहे| लेकिन जब आपको इस बात का एहसास होता है कि एक दो नहीं पूरी की पूरी पीढ़ी ही साफ़ हो गयी है तो मनो धरती डोलने लगती है|
फिर ध्यान जाता है छोटी-छोटी बातों पर| हर पीढ़ी एक-एक सीढ़ी उप्पर चढ़ गयी है| जो कल तक जवान थे, स्वस्थ थे आज वो बूढ़े और कमजोर हो गए है| आप सब जो कल तक बिना वक़्त की चिंता किये अथक क्रीडा करते रहते थे आज समय के पिंजरे में कैद पंची है| है न!
एक मिनट, क्या कहा मैंने, समय? हाँ सारा खेल समय का ही तो है| अब जा कर समझ आया कि ‘काल’के दो मतलब नहीं एक ही मतलब| और काल का चक्र अपनी निर्दयी चाल से अनवरत चलता ही जा रहा है| आज तो हिस्सा उप्पर है कल वो नीचे आ जाएगा और जो आज नीचे है कल वो उप्पर| और इस पहिये की गति में फँसी है हमारी जान|
और यही बोध मुझे हुआ जब मैंने उन तस्वीरो को देखा| कहते है न कि एक तस्वीर हजारो शब्द कहती है, मुझे भी कुछ ऐसा ही एहसास हुआ था| हर कोई मनो कह रहा हो कि बेटा इस चक्र में तू तो उसी दिन फँस गया था जिस दिन तेरा जन्म हुआ था, बस इसका ज्ञान तुझे आज हासिल हुआ है| उस क्षण ऐसा लगा कि बस उठू और दौड़ लगा दूँ, जब तक कि उस जगह न पहुच जाऊ जहां दुनिया अभी भी वैसी ही है जैसे मुझे याद है| सड़क का वो मोड़, वो पेड़, वो लकड़ी का दरवाज़ा, वो चौराहे का टुटा सिग्नल, वो चाट की दूकान, वो गायो का तबेला, कहाँ गया वो सब? काल के उदार में|
तो क्या ये सिर्फ मेरी मनो स्थिति है जो मुझे परेशान कर रही है? शायद हाँ| मैंने अक्सर यह अनुभव किया है कि जैसे-जैसे हम उम्र में बड़े होते जाते है, काल में पीछे देख कर दुखी होने की प्रवृत्ति हममे उतनी ही बढती जाती है| इसे नास्टैल्जिया या विरह भी कहा जाता है| बड़े-बड़े लेखक इसके चक्कर में चुकता हो गए तो मैं किस खेत की मुली हूँ|
तो मुद्दे पर वापस आते है| इतना सब सोचते हुए मैं एक ही निष्कर्ष पर पंहुचा कि मनुष्य उससे कही ज्यादा शक्तिहीन है जितना वो खुद को समझता है| काल और उसकी शक्ति के आगे न तो कभी मनुष्य की चली है न चल पायेगी| मनुष्य की महानता वही तक सीमित है जहां तक काल उसे सीमित रखना चाहता है| और हम चाहे जितना भी रो-पीट ले काल हमे एक बहेलिये की तरह अपने साथ घसीटते हुए आगे ले ही जाएगा| तो भलाई इसी में है कि काल के साथ आगे चल दें| पीछे देखते रहने से कुछ हासिल नहीं होगा| भला को सफ़र पीछे देख कर चलते हुए पूरा हुआ है क्या?
गुजरी हो भले पीछे बहारें अनेक
प्रिय हो भले तुझे ग्राम प्रत्येक
राह की यही पुकार, मुसाफिर तू आगे देख|